Friday, September 18, 2009

पितरों को विधि-विधान से किया गया पिण्ड दान !

बलिया। गंगा तट पर हजारों लोगों ने शुक्रवार को तर्पण व पिण्डदान कर अपने पूर्वजों की आत्मा के लिए शांति की प्रार्थना की। लोगों ने पहले मुंडन कराया फिर स्नान कर वैदिक रीति रिवाज से पितरों को भोजन (पिण्डदान) व पानी (तर्पण) दिया। आश्रि्वन मास की अमावस्या के दिन हिन्दू धर्म के अनुयायी अपने पितरों को याद करते हैं इसलिए इसे पितृ अमावस्या भी कहा जाता है। पितृ अमावस्या से 15 दिन पूर्व पितृपक्ष प्रारम्भ हो जाता है। कुछ लोग पूरे 15 दिन अपने पितरों को तर्पण देते हैं और पिता की मृत्यु जिस तिथि को हुई रहती है उस दिन पिण्डदान करते हैं लेकिन बहुतायत लोग अमावस्या के दिन ही अपने पितरों को पिण्डदान करते हैं। पिण्डदान करने के पीछे शास्त्रों में यह तर्क है कि इंसान मृत्यु के पश्चात प्रेतयोनि में भ्रमण करता है इसलिए उनकी शांति के लिए आश्रि्वन मास की अमावस्या के दिन उनको पिण्ड दान दिया जाता है। पिण्डदान करने वाला सबसे पहले अपने नाना, नानी, पिता और माता को पिण्डदान करता है और यह लगातार तीन पीड़ितों तक दिया जाता है। कुछ वर्षो के बाद अपने पितरों के प्रेत योनि से देव योनि में स्थापित करने के लिए गया में पितृ विसर्जन किया जाता है और उसके बाद पितरों को पिण्डदान देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। हालांकि लोग गया में पितृ विसर्जन करने के बाद भी वाराणसी के पितरकुण्डा में स्नान पर अपने पितरों को याद करते हैं। पिण्डदान के पश्चात घर में अच्छे-अच्छे व्यंजन बनाकर ब्राह्मण सहित परिजनों को भोजन कराने का भी रिवाज है।

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