Wednesday, April 29, 2009

15 पहचान खोने की कगार पर गुलाबों की नगरी सिकंदरपुर !

बलिया। कभी पूरे भारत में इत्र की खुशबू बिखेरने वाली गुलाबों की नगरी सिकंदरपुर आज अपनी पहचान खोने की कगार पर है। इस उद्योग की उखड़ती सांसें यदि टूटने से बची है तो वह है गुलाब जल का अभी भी विदेशों में निर्यात। सच्चाई यही है कि यहां के अधिकतर उत्पादक व कारीगरों ने संसाधनों की कमी का दंश झेलते हुए इस धंधे से खुद को अलग कर लिया है।

बता दें कि सुगंध को शीशी में बंद करने वाले केंद्रों में एक नाम बलिया जनपद के सिकंदरपुर का भी है। यूरोप की औद्योगिक क्रांति ने भारत के जिन कुटीर उद्योगों पर कुठाराघात किया था उसमें यहां का सुगन्धित तेल व इत्र उद्योग भी रहा। यहां के गुलाब जल, केवड़ा जल एवं सुगंधित तेलों की ख्याति दूर-दूर तक थी। यहां का गुलाब जल और केवड़ा जल आज भी कोलकाता भेजा जाता है। जहां से वह विक्रय हेतु विदेशों को चला जाता है। फूलों के शौकीन सिकंदर लोदी का बसाया कस्बा सिकंदरपुर का अतीत काफी गौरवपूर्ण रहा है। इसे आज भी फूलों की नगरी, उद्यानों का नगर आदि-आदि के नाम से पुकारा जाता है। अतीत में इस उप नगर के चतुर्दिक गुलाब, चमेली, केवड़ा, बेला के फूलों की बड़े पैमाने पर खेती होती थी। इससे यहां का वातावरण सदैव सुगंधित रहा करता था। इन फूलों की उपज से गुलाब रोगन व चमेली के तेल सहित इत्र, गुलाब जल, केवड़ा जल, गुलाब कंद, गुलाब शर्करी आदि देशी विधि से तैयार किए जाते थे। कुटीर उद्योग की बदौलत यहां के लोगों को जीविकोपार्जन के लिए अन्य साधन अपनाने की आवश्यकता नहीं थी। घर-घर में स्थापित इस उद्योग के चलते यहां के लोग काफी समृद्धिशाली और आत्मनिर्भर थे लेकिन औद्योगिक क्रांति ने इस व्यवसाय पर भी कुठाराघात किया। यही कारण है कि कारखानों में उत्पादित सेंट व तेलों की स्पर्धा में यहां की वस्तुएं टिक नहीं पायी। साथ ही नकली उत्पादों ने भी इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लगाया। सिकंदरपुर के नाम से बड़े-बड़े शहरों में इतने नकली उत्पाद छा गए कि यहां के उत्पादों के लिए बाजार ही सिकुड़ गया। आज आवश्यकता है इस उद्योग को बढ़ावा देने की जिससे कि सिकंदरपुर अपने गौरवमयी इतिहास को पुन: हासिल कर सके। इसके लिए यहां के तेल फूल उद्योग को शासन का सहयोग और संरक्षण आवश्यक है। फूलों की खेती को उद्योगपरक बनाने के लिए यदि शासन स्तर से सहयोग मिले तो कोई कारण नहीं कि यहां का फूल-तेल उद्योग पुन: अपने पुराने गौरव को प्राप्त न कर ले।

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वासन क्रिया से बनता है तेल, इत्र वगैरह वाष्पन विधि से

सिकंदरपुर , निप्र: सिकंदरपुर के सुगन्धित तेलों, गुलाब व केवड़ा जल तथा इत्र बनाने की अलग-अलग प्रक्रिया है। तेल जहां वासन क्रिया के माध्यम से तैयार किये जाते है वहीं गुलाब, केवड़ा जल, इत्र वाष्पन क्रिया के माध्यम से निर्मित होते है। गुलाब रोगन व चमेली का तेल बनाने की यह एक ही प्रक्रिया है। इसमें तिल को अच्छी तरह धो व सुखा लिया जाता है। यदि चमेली का तेल बनाना है तो एक निश्चित मात्रा में तिल और चमेली का फूल ले लिया जाता है। फर्श पर एक बड़े हिस्से मे चमेली के फूल की एक तह बिछाकर उस पर तिल फैला दिया जाता है। बाद में तिल के ऊपर भी फूल की एक तह फैला दी जाती है। फर्श पर फैले फूल और तिल को पूरी रात उसी प्रकार छोड़ दिया जाता है। दूसरे दिन तिल को फूल से अलग कर उसे फेंक दिया जाता है और यह क्रिया तीन-चार दिन तक चलने के बाद तिल को सुरक्षित रख लिया जाता है। बाद में आवश्यकतानुसार सुरक्षित वासित तेल की पेराई कर इससे तिल निकाल विक्रय हेतु भेज दिया जाता है। ठीक यही प्रक्रिया गुलाब रोगन के तेल के निर्माण में भी अपनायी जाती है। अंतर मात्र इतना होता है कि इसमें चमेली के फूल की जगह गुलाब का फूल इस्तेमाल किया जाता है। जहां तक गुलाब जल, केवड़ा जल व इसके निर्माण की बात है तो यह वासन की बजाय वाष्पन क्रिया द्वारा बनाये जाते है। इनके भी निर्माण में काफी अंतर है। गुलाब व केवड़ा जल जहां पानी और फूल के संयोग से बनाये जाते है वहीं इत्र का निर्माण फूल व पानी के साथ ही सन्दल एवं एक विशेष प्रकार के तेल के संयोग से बनते है। गुलाब व केवड़ा जल के निर्माण हेतु एक बड़े डेग में एक निश्चित मात्रा में फूल और पानी डालकर भट्ठी पर चढ़ा दिया जाता है। डेग को ढक्कन से भलीभांति बंद कर दिया जाता है जिससे कि उसके अंदर न तो हवा जाय न ही अंदर से बाहर ही आये। ढक्कन के बीच में एक छिद्र होता है जिससे बांस की एक एल टाइप नली को निकाल पानी से भरे हौदे में पड़े एक सुराहीदार बर्तन के मुंह से जोड़ दिया जाता है। भट्ठी में आग जोड़ने पर उस पर रखे गये डेग का पानी व फूल खौलने लगते है जिनसे उत्पन्न वाष्प बांस की नली के माध्यम से हौदी में पड़े बर्तन में पहुंच ठंढा हो पुन: पानी का रूप धारण कर लेते है। डेग में यदि केवड़ा का फूल है तो हौदी में पड़े बर्तन में पहुंच केवड़ा जल तैयार होता है। यदि गुलाब का फूल है तो गुलाब जल बनता है। फूल बदल-बदलकर यह क्रिया कई दिन तक दोहरायी जाती है। इत्र भी बनाने की यही प्रक्रिया है। अंतर मात्र इतना है कि गुलाब जल व केवड़ा जल के निर्माण के समय हौदी में पड़ा बर्तन में एक निश्चित मात्रा में सन्दल में घुल उसे सुगन्धित बना देता है। बाद में हौदी से बर्तन निकाल तेल अथवा सन्दल को पानी से अलग कर शीशियों को भरकर रख दिया जाता है।

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