Thursday, April 7, 2011

गदर के महानायक की जांबाजी को सलाम !

स्वतंत्रता आंदोलन की प्रथम आहुति व 1857 के गदर के महानायक मंगल पांडेय की जांबाजी को सलाम..। फांसी के फंदे पर हंसते-हंसते झूल जाने वाले इस अमर सपूत ने अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति का न सिर्फ नया इतिहास रचा बल्कि इस क्रांति को एक ऐसी चिंगारी दी जिसकी आंच से ब्रितानिया हुकूमत भारत छोड़ने को मजबूर हुई और भारतवासियों को आजादी के उन्मुक्त गगन में खुली सांस लेने का हक मिला। विडम्बना यह कि ऐसे महानायक को अपने ही देश में वह सम्मान अब तक नहीं मिल पाया जिसका वह हकदार था। जिला मुख्यालय से आठ किमी पूरब गंगा के सुरम्य तट पर बसा नगवा गांव जिसे मंगल पाण्डेय की जन्म भूमि होने का गौरव हासिल है, आज सवाल कर रहा है कि आखिर जिम्मेदारों की तंद्रा कब टूटेगी।

मंगल पाण्डेय का जन्म नगवा में 30 जनवरी 1831 को सुदिष्ट पाण्डेय एवं जानकी देवी के पुत्र के रूप में हुआ। मंगल पाण्डेय कोलकाता के पास 24 परगना जिले के बैरकपुर छावनी में 19 वीं रेजीमेण्ट की 34वीं कम्पनी की पैदल सेना के 1446 नम्बर के सिपाही थे। 29 मार्च 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत करने वाले इस सपूत द्वारा चार गोरे अफसरों को मार देने से अंग्रेजों के कान खड़े हो गये। बैरकपुर छावनी में अंग्रेजी सिपाहियों की संख्या बढ़ा दी गयी। मंगल पाण्डेय की गोली की गूंज लंदन तक जा पहुंची। सैनिक अदालत में उन पर मुकदमा चला। अन्तत: उन्हें आठ अप्रैल 1857 को बैरकपुर छावनी में तड़के फांसी दे दी गयी। नगवा के बुजुर्गो का कहना है कि मंगल पाण्डेय की बगावत के बाद अंग्रेजी सरकार ने गांव के लोगों को प्रताड़ित किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात नगवावासियों को काफी कुछ उम्मीदें थीं कि अपनी सरकार अमर शहीद मंगल पाण्डेय को राष्ट्रीय सम्मान से विभूषित करेगी। कम से कम भारत के लोकसभा परिसर में इनकी आदमकद मूर्ति की स्थापना अवश्य होगी। गांव भी शहीद ग्राम के रूप में उत्कर्ष को पहुंचेगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो सका है। बलिदान दिवस पर एक उम्मीद कि जिम्मेदारों की तंद्रा अब तो टूटे।

1 comment:

  1. बलिया की मिट्टी में जन्मे,
    'मंगल' ने जब ललकारा था...
    'अंग्रेजों तुम भारत छोड़ो..,
    यह हिन्दुस्तान हमारा है..'.
    उतर पड़े तब पहन के चोला
    केसरिया सब बलिदानी रे...,
    वो भी टीम क्या टीम थी भैया,
    जिसमे सम्मिलित थे जो साथी,
    उन्हें राजा-रानी-प्रजा मत कहो!.
    वतन के वे स्वाभिमानी थे.. .
    मृत्यु की इस सौन्दर्य पे भाई I
    लाखों जीवन कुर्बान है भाई !.
    'जीवन' जो नहीं कर सकता..
    'मृत्यु' उसे पूरी करती है..
    लेकिन यह भी सच है भैया !
    मरना नहीं आता है सबको
    जो जीना भी सीख नहीं पाए,
    भला मरना वे क्या जानेंगे ?
    क्या मृत्यु सौंदर्य पहचानेंगे ?
    क्या मृत्यु के सत्य को जानेंगे ?
    कुछ तो मरते है - एकबार,
    कुछ एक ही दिन में कईबार..
    दुःख को जग से पुनः मिटाने
    बुद्ध को 'मैत्रेय' रूप में आना है.
    आना तो है हरि को भी अब,
    'कल्कि' रूप में आना है ...
    वादा अपना जो निभाना है.
    फिर बात वही दुहराता हूँ ..
    मृत्यु समापन नहीं, सृजन है..,
    यह मृत्यु का ही 'महागर्जन' है.

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