साहित्य के शलाका पुरुष एवं काव्य पुरोधा जगदीश ओझा सुन्दर बलिया की माटी की सुगन्ध तो थे ही उनकी कविताएं चेतना से ओत प्रोत हैं। यह चेतना मात्र भाव संचार ही नहीं करती प्रत्युत एक वैचारिकी भी बन जाती है। उनकी समग्र रचना संवेदना की ऋचाएं हैं।
यह उद्गार डा.इन्द्रदत पाण्डेय के हैं। वह मानवीय साहित्यक मंच द्वारा भृगु मंदिर परिसर में आयोजित कविवर सुन्दर जी की 98वीं जयंती समारोह की अध्यक्षता करते हुए उपस्थित जनों को सम्बोधित कर रहे थे। संचालक डा.भरत पाण्डेय ने सुन्दर जी को सर्वहारा का प्रतिनिधि रेखांकित करते हुए उनके विद्रोही स्वरों को उद्धृत किया 'चली ना घुरहुआ त देस नाही चली हो'। डा.जनार्दन राय ने 'मैं दर्दो के गीत न गाता खुद पीड़ा गाती है' उद्धृत करते हुए सुन्दर जी की काव्य सर्जना अक्षय संजीवनी शक्ति पीड़ा को निरूपित किया। जयन्ती समारोह को सम्बोधित व पुष्पांजलि अर्पित करने वालों में प्रो.बनारसी राम, डा.जनार्दन चतुर्वेदी 'कश्यप', सीताराम पाण्डेय 'प्रशान्त', जेपी पाण्डेय, अनन्त प्रसाद राम भरोसे, अनुरोध यादव, अशोक ओझा आदि भी शामिल रहे।
Friday, December 31, 2010
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