आजादी के समय की अनमोल यादें भुलाये नहीं भूलतीं। तब नगर में दो ही सिनेमा हॉल थे। शंकर टाकीज गड़हा मुहल्ले में था तो मीना पैलेस चौक में। ये दोनों टूरिंग टाकीज कहलाते थे। इन्हीं इमारतों में पला- बढ़ा सिनेमा। उस दौरान शंकर टाकीज में उड़न खटोला, शबनम और मीना पैलेस में शंकर बाबू, सुहाग रात, आरती व मधुमती जैसी फिल्मों ने अच्छा व्यवसाय किया था। इन दोनों सिनेमा हालों के बंद हो जाने से संबंधित इमारतों के स्वरूप मौजूदा समय में बदल जरूर गये है लेकिन उन दिनों की यादें आज भी बड़े-बुजुर्गो के जेहन में कैद है।कहना गलत न होगा कि फिल्मों की रंगीनियत को परदे पर उतारकर लोगों को मनोरंजन की दुनिया में ले जाने का काम बड़ी शिद्दत व योजनाबद्ध तरीके से किया रतसर के लेफ्टिनेंट जनरल शारदानंद सिंह के द्वितीय पुत्र प्रकाशानंद ने। लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद उन्होंने बलिया में प्रकाश टाकीज के नाम से सिनेमा हाल खोलने का निर्णय किया। निर्माण कार्य वर्ष 1958 में प्रारम्भ हुआ और एक साल बाद ही छ: माह के परमिशन पर यह टूरिंग टाकिज के रूप में चालू हो गया। टिकटों का दाम रखा गया साढ़े दस आना व साढ़े पांच आना। फिल्म लगी 'दिल भी तेरा हम भी तेरे' जिसके अभिनेता थे सदाबहार हीरो धर्मेद्र। इसके बाद रेशमी रुमाल, जंगली, बीस साल बाद, काजल, कोहरा, दो बदन, बूंद जो बन गयी मोती, दिल ही तो है, छलिया, दिल ने फिर याद किया आदि फिल्मों ने काफी धूम मचायी थी। फिरोज खान अभिनीत फिल्म आग के प्रदर्शन के बाद यह सिनेमा हॉल कतिपय कारणों से बंद कर दिया गया। इसके बाद एक-एक कर शीशमहल, कृष्णा टाकिज, विजय थियेटर, पूर्वाचल, नारायणी, छाया चित्र मंदिर, सुन्दरम, पनामा सिनेमा हॉल अस्तित्व में आये लेकिन केबिल व डिश की मार, मनोरंजन कर विभाग की बेतुकी नीति व दूर होते दर्शकों की वजह से एक-एक कर छाया चित्र मंदिर, पनामा व सुन्दरम बंद हो गये। सूत्रों के अनुसार गड़वार रोड में भी सम्राट के नाम से एक सिनेमा हॉल बनाया जा रहा था, निर्माण कार्य भी काफी हद तक हो गया था लेकिन कुछ दिनों बाद उस पर विराम लग गया। एंग्री यंग मैन के रूप में बिग बी अभिताभ बच्चन के अवतरित होने के बाद सिनेमा की दुनिया ही बदल गयी। उन दिनों दर्शकों खास कर छात्रों का जज्बा देखते ही बनता था। उनकी कोशिश रहती थी कि अमुक फिल्म का पहला ही शो देखेंगे। पहला टिकट हासिल करने के लिए उनमें होड़ लग जाती थी। इस वजह से खिड़कियों पर भारी भीड़ उमड़ पड़ती थी। उस दौरान मारपीट भी जमकर होती थी। हथियार होता था 'बेल्ट'। पहला टिकट हासिल कर लेने वाला शख्स खुद को सिकंदर-ए-आजम से कम नहीं समझता था। उस समय शोले से लेकर उनकी करीब-करीब सभी फिल्में खूब चली थीं। सिनेमा हालों के सामने 'हाउस फुल' का लगा बोर्ड पारिवारिक लोगों के बीच जहां तू-तू, मैं-मैं का सबब बन जाता था वहीं ब्लैक में टिकट बेचने वालों के चेहरे पर बिखेर देता था मुस्कान। बड़ा अजीब दृश्य होता था जब सिनेमा प्रेमी ब्लैक में टिकट बेचने वालों के इर्द-गिर्द गणेश परिक्रमा किया करते थे। परन्तु टीवी, डिश टीवी, सीडी, विडियो के आगमन ने सिनेमा हाल के सुनहरे दिनों पर पानी फेर दिया।
दूसरा चरण हालीवुड : बीसवीं सदी के अंतिम दशक के शुरुआती दौर तक महानगरों के लोग हालीवुड के हाई थ्रिल, एक्शन व सस्पेंस से लबरेज सिनेमा के बारे में जान गये थे लेकिन यहां के लोगों तक यह पहुंचा काफी बाद में। इस क्रम में आस्कर अवार्डी फिल्म टाइटेनिक व जुरासिक पार्क ने यहां भी काफी धूम मचायी थी।
तीसरा चरण भोजपुरी : सच कहे तो बंद होते सिनेमा हॉलों को भोजपुरी फिल्मों ने ही सहारा दिया। अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कृष्णा टाकिज में नदिया के पार ने बाबी व गीत की ही अपार सफलता की तरह सिल्वर जुबली मनायी थी। इसी क्रम में गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो, दंगल, विदेशिया, गंगा किनारे मोरा गांव, निरहुआ चलल ससुराल, ससुरा बड़ा पइसा वाला आदि फिल्मों ने अच्छा बिजनेस दिया था।
बहुत कुछ बदला: प्रकाश सिनेमा हाल के संस्थापक प्रकाशानंद सिंह के पुत्र प्रसिद्ध रंगकर्मी विवेकानंद सिंह बताते है कि तब के दर्शक शालीनता से सिनेमा देखते थे। बिजली आपूर्ति में व्यवधान के चलते अगर दर्शक सिनेमा नहीं देख पाते थे तो उनके टिकट का पैसा वापस कर दिया जाता था। श्री सिंह के अनुसार यहां फिल्मों का प्रदर्शन 'अवाक युग' में भी होता था। बाद में 'सवाक' फिल्मों का आनंद दर्शकों ने उठाना शुरू कर दिया। रंगीन फिल्मों के आने के बाद सब कुछ बदलता चला गया। अब तो तफरीह या विवशता में ही लोग सिनेमा हालों की तरफ रुख करते है।
Saturday, January 29, 2011
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