Thursday, September 1, 2011

!!!!! मैं ही मैं हूं !!!!!

मैं चाहे ये करूं मैं चाहे वो करूं.. मेरी मर्जी..

क्यों भई? ऐसा कैसे चलेगा? ये हक आपको किसने दे दिया कि आप चाहे जो करें, सब चलेगा? क्या आप परमपिता परमेश्वर हो गए हैं कि सब आप ही का चलेगा? दुनिया में दूसरे किसी को कोई हक नहीं रह गया है? क्या सबके जीवन के सारे अधिकार सिर्फ आपकी मुट्ठी में सिमट कर रह गए हैं?

जी हां, क्योंकि..

इस जमीं से आसमां तक

मैं ही मैं हूं..

वजह टकराव की

आम राय मानें तो यही आज की दुनिया की सोच बनती जा रही है। जाहिर है, इसमें मैं भी शामिल हूं, आप भी शामिल हैं, ये भी शामिल हैं, वो भी शामिल हैं और हमारे आसपास के सभी लोग- स्त्री-पुरुष, बच्चे-बुजुर्ग.. भी शामिल हैं। क्या पता कुछ लोग इस सोच से मुक्त ही हों, लेकिन इससे क्या होता है? करीब सात अरब की आबादी में एक-आधा अरब लोग सही सोच रखते हों और बाकी दुनिया को उससे प्रभावित न कर सकें तो फर्क ही क्या पडता है? गलत सोच के बहुमत से आजिज आकर सही सोच का अल्पमत अकसर उनके पाले में जा खडा होता है। ऐसा इतिहास में कई बार देखा जा चुका है। हम शायद फिर इसी दिशा में बढ रहे हैं।

हालांकि उस तरफ बढना कोई नई बात नहीं है। सच तो यह है कि इस सोच की मौजूदगी दुनिया के हर समाज में हमेशा रही है। एक छोटे से घर के भीतर होने वाले विवादों से लेकर कई महायुद्ध तक इसके प्रमाण हैं। लेकिन बहुत लोग ऐसा मानते हैं कि पहले इस सोच से ग्रस्त लोगों की संख्या कम थी, जो अब बहुत बढ गई है और बढती ही जा रही है। जब उनकी तादाद कम थी तो यह सोच बहुत लोगों को प्रभावित करने की हैसियत में नहीं थी, लेकिन अब जब आबादी में ऐसे लोगों का अनुपात बढता ही जा रहा है तो? अब वे बाकी आबादी को दबाने की हैसियत में आ गए हैं और दबा रहे हैं। बेशक, वे कभी एकजुट नहीं हो सकेंगे। क्योंकि अहंकार और स्वार्थो की अंधी दौड सिर्फ लडाती है, बांधती नहीं। यह सिर्फ तोडती है, जोडती नहीं। लेकिन दुनिया की ज्यादातर आबादी अगर आपस में टकराव की शिकार हो, तो जो उसमें शामिल न हों यानी शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहें, वे भी शांति से कैसे जी सकेंगे?

मैं की खोह

यह एक त्रासद सच है कि इस सोच के साथ-साथ इसका असर भी व्यापक होता जा रहा है और उसे साफ-साफ देखा भी जा रहा है। परिवारों के टूटने से लेकर सामाजिक विघटन और कई राष्ट्रों में गृहयुद्ध तक..। टूटने का यह सिलसिला अंतहीन है। आम जनजीवन में देखें तो छोटी-छोटी बातों पर लडाई, रोडरेज, संयुक्त परिवार की तो बात ही छोडिए, एकल परिवारों में दांपत्य संबंधों तक का टूटना, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, छोटी-छोटी बातों के लिए निहायत निम्न कोटि की चालाकियां.. क्या है यह सब? ऐसा लगता है, गोया किसी का किसी से कोई मतलब नहीं रह गया है। हर शख्स अपने-आपमें ही गुम है और मैं मेरे की उस खोह से बाहर आने की इच्छाशक्ति तक खो चुका है।

सोच का फर्क

लेकिन नहीं, इसे अपनी स्थायी सोच बनाने के पहले जरा ठहरिए। अपने आसपास जरा नजर दौडाइए, तमाम दुराग्रहों से मुक्त होकर। आप पाएंगे.. कहीं कोई दुर्घटना घट गई और इर्द-गिर्द मौजूद हर शख्स अपने स्तर से हर संभव मदद के लिए तैयार खडा होता है। देश ही नहीं, दुनिया के किसी कोने में कोई प्राकृतिक आपदा आ गई और जिससे जो संभव है, वह वही लेकर मदद के लिए हाजिर है। और तो और, व्यवस्था में व्याप्त खामियों के खिलाफ आवाज उठाने की बात हो, तो भी देख लें। उन्हें नेतृत्व की नीयत पर भरोसा होना चाहिए, फिर देखिए, क्या नहीं कर गुजरते हैं लोग। अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में बेतरह व्यस्त आज का युवा, जो अपने स्वास्थ्य जैसी अनमोल चीज के लिए जरूरी लाइफस्टाइल तक की परवाह नहीं करता, वही ऑफिस से छुट्टी करके जन लोकपाल के लिए अन्ना के धरने में शामिल होता है और उनके लए जनमत सर्वेक्षण तक करता है। बिना किसी पारिश्रमिक और बिना किसी लालच के। वह यह काम सिर्फ कॉमन गुड के लिए करता है। ऐसा क्यों होता है कि तारे जमीं पर, पीपली लाइव, रंग दे बसंती, 3 इडियट्स, लगे रहो मुन्नाभाई, ब्लैक फ्राइडे, अ वेडनेसडे, राजनीति या गंगाजल जैसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सारे रिकॉर्ड तोड देती हैं?

सोशल नेटवर्किग साइट ट्विटर पर अभिव्यक्तियों के संदर्भ में अमेरिका की ओरल रॉबर्ट यूनिवर्सिटी के एक शोध में भी यह बात सामने आई है कि युवाओं की सबसे ज्यादा अभिव्यक्तियां सामाजिक-राजनीतिक परिघटनाओं के संज्ञान और उन पर सहमति या विरोध जताने वाली हैं। क्या मालूम होता है इससे? जाहिर है, अपने समय का समाज सबकी चिंता का विषय है। सभी इसे लेकर सोचते हैं और ईमानदारी से कुछ न कुछ करना भी चाहते हैं। यह अलग बात है कि व्यवसाय के नजरिये से अत्यंत प्रतिस्पर्धा के इस युग में उन्हें च्यादा समय अपने कामकाज को देना पडता है। इस दौरान उपजे तनाव से उबरने के लिए वे बचा हुआ समय रिलैक्सेशन पर खर्च करते हैं। अब यह अलग बात है कि रिलैक्सेशन का सबका अपना तरीका है। कोई इसके लिए ध्यान-योग की मदद लेता है, कोई पढ-लिखकर इससे मुक्त होता है और कोई मनोरंजन के विभिन्न साधनों से। पहले के लोगों की तरह वे आम तौर पर पडोसियों-परिचितों का हाल लेने या इधर-उधर के कार्यक्रमों में शामिल होने में बहुत रुचि नहीं ले पाते।

मूल्यहीनता नहीं है आधुनिकता

हम यह क्यों भूल जाते हैं कि आधुनिकता के दर्शन की शुरुआत ही व्यक्ति को महत्व देने की सोच के साथ हुई है? अब यह अलग बात है कि इस दर्शन में व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ उसके कर्तव्य और दायित्वों को भी पूरा महत्व दिया गया है। आधुनिकता या व्यक्तिवादी सोच का मतलब मूल्यहीनता या अपने सामाजिक कर्तव्यों-दायित्वों से मुंह मोड लेना बिलकुल नहीं है। अपने मूल रूप में व्यक्तिवादी सोच का आग्रह सिर्फ इतना ही है कि आप जैसे भी हैं, स्वयं को वैसे ही स्वीकार करें। खुद को लेकर कोई हीनता बोध या दुराग्रह न पालें। सिर्फ इसलिए कि समाज आपसे ऐसा चाहता है, कुछ भी न करें, जब तक कि आपका विवेक आपको इसकी इजाजत नहीं देता। यह याद दिलाता है कि अपनी सबसे पहली जिम्मेदारी आप स्वयं हैं। यकीनन यह सिर्फ एक दर्शन नहीं, समय की जरूरत थी। इस दर्शन ने कई मामलों में बडी राहत भी दी। उनकी सोचिए, जो किसी तरह की शारीरिक-मानसिक कमजोरी के कारण स्वयं को ही हेय मान बैठते थे। उन स्त्रियों की सोचिए जो पूरे परिवार का ध्यान रखते खुद को ही भूल जाती थीं। इसके चलते वे तमाम व्याधियों-बीमारियों की शिकार होती थीं। किसी हद तक यह बात आज भी है, लेकिन फिर भी आज की स्त्री ने स्वयं पर ध्यान देना सीखा है। समाज का भय इतना था कि कई बार लोग समाज की अपेक्षाओं पर खरे उतरने के लिए अपनी हैसियत से बहुत ज्यादा खर्च कर डालते थे। इसके बाद वर्षो कर्ज चुकाते रहते थे। बहुत लोग अब इस सोच से उबर चुके हैं। जो नहीं उबरे हैं, वे उबरने की कोशिश में हैं। आज के युवा वर्ग में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो समाज के भय से कोई काम नहीं करते। वे जो करते हैं, अपने विवेक और अपनी सुविधा के अनुसार करते हैं। वे यह पसंद नहीं करते कि कोई उनकी जिंदगी में दखल दे और खुद भी किसी के मामले में अनावश्यक दखल देने बिलकुल नहीं जाते।

ही नहीं भी

हां, यह तब त्रासद लगता है जब हमारी इसी प्रवृत्ति के चलते कभी-कभी बडी घटनाएं घट जाती हैं और हमें पता भी नहीं चल पाता। कई बार यह लापरवाही हमारे लिए जीवन भर के संताप में बदल जाती है। यह कुछ और नहीं, सिर्फ व्यक्तिवाद की सोच को सही संदर्भ में न समझ पाने का नतीजा है। आधी-अधूरी समझ हमेशा खतरनाक होती है। अभी जो कष्टप्रद हालात हम देख रहे हैं, वे शायद कुछ लोगों की ऐसी ही समझ के नतीजे हैं। ध्यान रहे, यह सोच यह तो कहती है कि मैं महत्वपूर्ण हूं, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं कहती कि सिर्फ मैं ही महत्वपूर्ण हूं। इसका आग्रह सिर्फ इतना ही है कि सबके यानी समाज के चक्कर में खुद को न भूलो। याद रखो कि मैं हूं यानी मैं भी इस दुनिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हूं, यह नहीं कि सिर्फ मैं ही हूं। दूसरे लोग भी हैं और उनका होना भी उतना ही अहम है, जितना कि मेरा। यकीनन, ही और भी का यह फर्क अगर हम ठीक से समझ सकें तो न परिवार टूटेंगे, न समाज और न हम खुद। बल्कि दुनिया लगातार बेहतर होती चली जाएगी।

बिना किसी औपचारिकता के भी निभा सकता हूं

अमिताभ बच्चन, अभिनेता

हम ऐसी स्थिति में हैं,जहां चार लोग हमें पहचानते हैं। हमारी बात सुनना चाहते हैं। मैं तो यूनाइटेड नेशंस के यूनिसेफ का एंबेसेडर हूं। हाल ही में मुझे नई जिम्मेदारी दी गई है। यूनिसेफ वालों ने मुझे गर्ल चाइल्ड वेलफेयर के लिए एंबेसेडर निर्धारित किया है। जब यूनिसेफ वालों की तरफ से मेरे पास यह प्रस्ताव आया, तो मैंने उनसे कहा कि हमें एंबेसेडर बनाने की क्या जरूरत है? मैं इस जिम्मेदारी को बिना किसी औपचारिकता के भी निभा सकता हूं।

जिम्मेदार हैं युवा

सोनाक्षी सिन्हा, अभिनेत्री

समाज के प्रति जिम्मेदार हैं आज के युवा। मैं ख्ाुद भी एक जिम्मेदार युवा हूं। समय के हिसाब से हम आगे बढ रहे हैं। अगर अपने लिए हम कुछ कर रहे हैं तो उसमें बुरा क्या है? लेकिन दिन भर के बाद अगर थोडा भी वक्त समाज के लिए निकाल लें तो यह अच्छी बात होगी। अपनी जेब भरने के बाद अगर दूसरे की जेब में कुछ पैसा डाल देंगे तो उससे आत्मसुख मिलेगा। आज हम अपने बारे में भी सोचते हैं और समाज के लिए भी। बस कंसेप्ट में थोडा बदलाव जरूर आया है पहले हम अपने बारे में सोचते हैं। फिर दूसरे के लिए। लेकिन सोचते जरूर हैं। वर्चुअल व‌र्ल्ड सबके लिए खुला है। अगर हम उस स्तर पर कोई बदलाव लाते हैं तो इससे अच्छा और क्या है। जहां तक मेरा सवाल है मुझे जब भी मौका मिलता है मैं समाज के लिए कुछ न कुछ जरूर करती हूं। जितना समय मिलता है मैं लोगों की मदद करती हूं। चाहे वह किसी भी तरह से क्यों न हो। अगर मुझे कोई समाजसेवी संस्था कहीं बुलाती है तो मैं चली जाती हूं। इससे चैरिटी को बढावा मिलता है। इसमें बुराई क्या है? मैं फिल्मों में काम कर रही हूं इसलिए बहुत ज्यादा कुछ तो नहीं कर सकती, लेकिन अगर किसी संस्था की तरफ से मुझे बुलाया जाता है तो मैं पूरी कोशिश करती हूं उसमें शामिल होने की। फिल्म इंडस्ट्री यूं भी इन सब मामलों में काफी आगे है।

फिल्मों के जरिये निभाता हूं

आमिर खान, अभिनेता

जहां तक सोशल रेस्पांसिबिलिटी का सवाल है, मेरे हिसाब से हर इंसान को अपने समाज के प्रति जिम्मेदार होना ही चाहिए। आप चाहे एक्टर हों या डॉक्टर हो, चाहे बिजनेसमैन हों या जर्नलिस्ट हों, ड्राइवर हों, दुकानदार हों, फिल्ममेकर हों, या फिर कथाकार..देश के हर इंसान को अपने समाज की बेहतरी के लिए योगदान करना चाहिए। जरूरी नहीं कि आप कुछ बडा करें। जितना आपके हाथ में है, उतना जरूर करिए। मैं एक एक्टर के तौर पर जितना कर सकता हूं, जरूर करता हूं। लोग कहते हैं कि आप पॉलिटिक्स में घुसने वाले हैं क्या? मैं उनसे कहता हूं कि जरूरी नहीं है कि पॉलिटिशियन बनकर ही ऐसे काम किए जा सकते हैं। मैं अपनी फिल्मों से वह काम करता हूं। अपनी फिल्मों के जरिये अपने सोशल कंसर्न लोगों तक पहुंचाता हूं।

बखूबी समझता हूं जिम्मेदारी

संजय दत्त, अभिनेता

मैं अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को बखूबी समझता हूं। हमारा परिवार हमेशा अपने सामाजिक दायित्व को निभाने में आगे रहा है। दत्त साहब द्वारा स्थापित नरगिस दत्त मेमोरियल फाउंडेशन के जरिये हम कैंसर पीडित मरीजों की मदद करते हैं। साथ ही, मैं स्वयंसेवी संस्था सपोर्ट से भी जुडा हुआ हूं, जो सडक पर अपना जीवन बसर करने वाले बच्चों को नशे से दूर रखने में मदद करती है। मैं नहीं चाहता कि जिन हालात से मैं गुजर चुका हूं उससे कोई दूसरा बच्चा गुजरे।

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संस्कारों की अहमियत समझें

शिखा स्वरूप, अभिनेत्री

मैं ऐसे संस्कारों के साथ पली-बढी हूं कि व्यक्तिवाद की सोच से भी दूर रहती हूं। हम जिस फील्ड में हैं वहां भी सेंसर बोर्ड है। उसे देखना होता है कि क्या गलत है और क्या सही। इसी तरह घर में भी मां-बाप सेंसर बोर्ड का काम करते हैं। उन्हें अपने बच्चों पर ध्यान देना होगा कि वे कुछ ऐसा न करें। यहां अहम बात यह भी है कि जब हम ही सही नहीं होंगे, तो बच्चों को क्या कहेंगे? मैं आजाद खयाल होने को बुरा नहीं मानती, लेकिन आजादी की भी सीमा होती है। हद से बाहर जाना आजादी नहीं, मनमानी है। आज बच्चे जब कॉलेज में जाते हैं या वे 17 साल के होने के बाद जब घर से बाहर दोस्तों के साथ होते हैं तो उनकी सोच क्या होती है, यह बात किसी छिपी नहीं है। हर जगह ऐसा देखने को मिलता है कि जब जो चाहें लोग कर रहे हैं, बच्चे जो मन में आया बोल रहे हैं। समाज कैसा और कैसे बुजुर्ग? मेरी समझ से यहां आपके संस्कार का उनमें होना ही काम आएगा।

मैं दिखावे से हमेशा दूर रहती हूं और लोगों से भी यही बात कहती हूं कि वे बेवजह दिखावे से खुद को दूर रखें। एकल परिवार पश्चिम की सोच है और चूंकि हमारे यहां यह अब गहरी जडें जमा रहा है, तो उसका खमियाजा भी भुगत रहे हैं बहुत लोग। मान-मर्यादा जैसी बातें तो कम ही देखने को मिलती हैं। जिसे देखो वही पैसे के पीछे दौड रहा है। पता नहीं लोगों को कितने पैसों की जरूरत है। उन्हें और कितना चाहिए यह भी सीमा नहीं है। जो मिल जाए वह भी कम है। हम समाज के साथ जीते हैं। मैं तो छोटी-छोटी बातों को लेकर हर किसी से कहती हूं कि जब हम अपने घर को और मन को साफ नहीं रख सकेंगे तो भला देश को क्या साफ कर पाएंगे?

रतन

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गायब हो गए आदर्श

नलिनी, नृत्यांगना

संबंध समाज की बहुत बडी देन हैं और ये दूसरों को महत्व देने से ही बनते हैं। जिस व्यक्ति की सोच के केंद्र में सिर्फ वही होगा, उसके लिए संबंधों का निर्वाह कर पाना कभी संभव नहीं होगा। हमारे समाज की यह सोच नहीं रही है। सामाजिक व्यवस्था की हमारी सोच दुनिया में शायद सबसे पुरानी है। इसे संगठित करके इस तरह बनाया गया है कि मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी और पेड-पौधे तक आपस में एक-दूसरे से जुडे रहें। सबके अधिकार थे तो सबकी जिम्मेदारियां भी तय थीं और सभी उन्हें निभाते भी थे। स्त्री-पुरुष अपनी जिम्मेदारियां निभाते हुए एक-दूसरे के योगदान का सम्मान करते थे। पति अगर आर्थिक आय के लिए घर से बाहर होता था तो पत्नी घर के भीतर की जिम्मेदारियां निभाती थी। आज दोनों कमाने में लगे हैं, लेकिन जिस सुख के लिए सारी परेशानियां मोल ले रहे हैं, वही जीवन से गायब है।

संगीत-नृत्य की दुनिया में भी यह प्रवृत्ति दिखाई देती है। पहले कलाकार कला के उद्देश्य को महत्व देते थे। वे जानते थे कि कला की दुनिया में लोग तनाव से मुक्ति पाने के लिए आते हैं। वे उसी अनुसार अपनी प्रस्तुतियां करते थे। शास्त्रीय संगीत की राग-रागिनियों और नृत्य विधाओं में इसका खयाल रखा जाता था। अब कई कलाकारों के लिए श्रोता-दर्शक और उसके जीवन की सुख-शांति महत्वपूर्ण नहीं रह गई है। उन्हें अपने व्यक्तित्व का विस्तार सबसे जरूरी लगने लगा है। इसके लिए वे चमत्कार के पीछे पडे रहते हैं। इससे कलाकार भले बडे बन जाएं, लेकिन श्रोता या दर्शक तो सिर्फ तनाव पा रहे हैं। बच्चों या युवाओं में बडों के प्रति सम्मान का भाव नहीं दिख रहा है। नतीजा यह हुआ है कि समाज से मूल्य गायब हो रहे हैं। आदर्श जीवन के किसी क्षेत्र में दिख ही नहीं रहे हैं और यह इसका सबसे बडा दुष्परिणाम है।

व्यक्तिगत सक्रियता जरूरी

कोयना मित्रा

समाज से जुडी चिंता को दिखाने के लिए यह काफी नहीं है कि आप सोशल आर्गेनाइजेशन को कुछ पैसे डोनेट कर अपनी जिम्मेदारी भूल जाएं। सलेब्रिटी चाहें तो काफी कुछ कर सकते हैं। हमारी पर्सनैलिटी और हमारा चेहरा सामाजिक समस्याओं से जूझने में मददगार हो सकता है। लोग हमारी बात सुनते हैं और उसे फॉलो करने की कोशिश करते हैं। जब भी मौका मिलता है मैं व्यक्तिगत तौर पर सामाजिक मुद्दों से जुडे कार्यक्रमों में हिस्सा लेती हूं और अपनी बात रखती हूं। मेरी मौजूदगी से यदि आम लोगों का ध्यान किसी सामाजिक समस्या की तरफ जाता है तो मैं हमेशा तैयार रहती हूं।

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मुश्किल से मिलता है समय

विनय पाठक, अभिनेता

मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि लोगों का समाज के प्रति जिम्मेदारी का भाव गायब हो गया है। दरअसल, अब लाइफस्टाइल ऐसी हो गई है कि अपने घर-परिवार तक के लिए बमुश्किल समय मिलता है। मैं अपनी ही बात करूं तो शूटिंग के बाद जो कुछ भी समय मिल पाता है, मैं आराम करना चाहता हूं। अपने परिवार के साथ समय बिताना चाहता हूं। उसके बाद समाज के लिए कुछ करने का समय कम ही मिलता है। कई बार मैंने चैरिटी शोज किए हैं। ऐसा कहीं भी पता चलता है तो मैं अपने योगदान के लिए तुरंत तैयार हो जाता हूं। आज हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर सब कुछ डाल देता है। मैं अकेले कैसे करूं की दुहाई देने लगता है। लेकिन अगर हर कोई समाज के लिए निजी स्तर पर न सोचे किसी दूसरे को जिम्मेदार ठहराए तो कुछ नहीं होने वाला। इसे पल्ला झाडना ही कहा जा सकता है। लोगों की सोच बदल चुकी है। समाज के डर से स्त्रियां जीवनभर पति और ससुराल वालों का जुल्म नहीं सह रही है। उसके खिलाफ आवाज उठा रही हैं। यह अच्छी बात है। पर अगर समाज का जरा भी डर नहीं रहेगा तो दिनदहाडे दुष्कर्म, कत्ल, चोरी, छेडखानी जैसी घटनाएं भी बढ जाएंगी। कुछ नियम और डर निहायत जरूरी होते हैं। बदलाव कोई भी हो, उसके पहलू हमेशा दो होते हैं। लोग अपने तक सीमित हो गए हैं तो यह इस लिहाज से अच्छा है कि अब वे अपने बारे में सोचने लगे हैं।

मैं ख्ाुद को एक जिम्मेदार नागरिक मानता हूं। हम चैरिटी के लिए काम करते हैं। चाहे वह कन्या भ्रूण सुरक्षा के लिए हो या साक्षरता के लिए। मैं घर-घर जाकर भी जागरूकता कार्यक्रम चला चुका हूं।

इला श्रीवास्तव

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अध्यात्म ही बचा सकता है समाज को

आशुतोष जी महाराज

आज स्वार्थ के बढते दायरों के समक्ष समाज गौण हो गया है। दूसरे शब्दों में यह अधिकारों एवं कर्तव्यों के बीच की लडाई है। व्यक्तिवादी सोच ने अधिकारों की मांग को प्रबलता दी है और कर्तव्यों का निर्वाह क्षीण हो गया है। इस समस्या का निदान भारतीय संस्कृति के मूल चिंतन अध्यात्म में निहित है क्योंकि यह अधिकार एवं कर्तव्य के बीच संतुलन का मार्ग है। समाज की दशा व्यक्तियों की सोच की दिशा पर निर्भर है और सामाजिक कुरीतियां सोच में स्वार्थ की अति से उत्पन्न रुग्णता का ही नतीजा हैं। इन्हें मिटाने के लिए विवेक बुद्धि की आवश्यकता है। जो देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप शुभ चयन की प्रक्त्रिया है। यह लोग क्या कहेंगे नजरिये को क्या सही है वही करेंगे में रूपांतरित करने का बल देती है।

स्वार्थजनित सोच से संयुक्त परिवार नष्ट हो रहे हैं और इससे असुरक्षा बढ रही है। संबंधों में आत्मीयता के लिए आवश्यक है प्रत्येक व्यक्ति में अध्यात्म के बीज बोने की। व्यक्तिवादी सोच विश्लेषण की प्रक्रिया है तो अध्यात्मवादी सोच संश्लेषण की। विश्लेषण में खंड-खंड टूटना है, तो संश्लेषण में खण्ड-खण्ड का एकीकरण है। स्वार्थ और अहंकार व्यक्ति से राष्ट्र तक सबको लील रहे हैं। परिणाम स्वरूप सामने है- भ्रष्टाचार, हिंसा, आंतकवाद, गरीबी, दूषित पर्यावरण और अपने अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगाए युद्ध की विभीषिका में जलता विश्व। इस अग्नि का शमन केवल ब्रह्मज्ञान की शीतल फुहारों से ही संभव है। अध्यात्म से उत्पन्न सर्वे भवंतु सुखिन: की पवित्र भावना ही सबकी उन्नति में अपनी उन्नति देखने की दृष्टि दे सकती है।

बैलेंस बनाकर चलें

टॉम आल्टर, चरित्र अभिनेता

आजादखयाली अच्छी है, पर बुरी भी। जब हम बदलाव की स्थिति से गुजरते हैं, तो यह भी ध्यान रखना होता है कि हमें कितना बदलना है। लेकिन इसका होश न हमें है और न ही हमारी नई पीढी को। हमें ध्यान रखना होगा कि हम कितने साफ हैं। यदि हम साफ हैं तो दुनिया अपने आप साफ हो जाएगी और समाज भी स्वस्थ हो जाएगा। इसके मूल में अहम बात यह भी है कि संस्कार हम उन्हें कैसा दे रहे हैं और हम खुद कितने संस्कारी हैं। आजाद खयाल होना जितनी अच्छी बात है उतनी ही गलत भी। हमें बैलेंस बनाकर चलना चाहिए।

फिजूल के दिखावे और खर्च करने की बात जहां तक है, तो इस पर पूरी किताब लिखी जा सकती है। इस बारे में कम शब्दों में बोलना सही नहीं होगा। वैसे इससे बचना चाहिए। मैं आजाद खयाली को लेकर ज्यादा मायूस नहीं हूं, लेकिन इतना भी न हो कि हम हदें पार कर जाएं और कुछ गलत हो जाए। मैं यह कई संदर्भो को भी देख रहा हूं। हमारे यहां करप्शन भी है और पूजा भी हम ही करते हैं। यहां सब कुछ है, लेकिन बदलाव उतना ही अच्छा जितना दाल में नमक। मानव स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि हम कभी एक होते हैं और कभी अलग भी।

मैं तो हर उस काम से आहत होता हूं, जो मुझे गलत लगता है। खुशी भी होती है कभी। ये सभी काम हम सभी करते हैं। रही बात समाज के प्रति जिम्मेदारी की तो मेरा सीधा मानना है कि हम सभी समाज में ही जीते हैं, जहां जाते हैं वहां क्षण में एक समाज बन जाता है। हम समाज के बिना कैसे जी सकते हैं?

समाज व देश के बारे में सोचना जरूरी

माधुरी दीक्षित

सामाजिक जिम्मेदारी को महसूस करना वक्त की मांग है। हमें खुद से ऊपर समाज और देश के बारे में सोचने की जरूरत है। जरूरी नहीं है कि हम कुछ बडा करें। छोटी-छोटी बातों से आप समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर सकते हैं। मैं ऐसा करती हूं। अपने आस-पास के लोगों की खुशियों का खयाल रखें। अगर आपके आसपास कुछ बुरा हो रहा है तो उसे सुधारने की जिम्मेदारी खुद पर लें। सामाजिक रूप से जागरूक होने का मतलब है कि आप अपना नेता ख्ाुद चुनें, वोट करें। जहां रहें, उस जगह को साफ और अपराधमुक्त रखने में मदद करें। पर्यावरण पर ध्यान दें। इलेक्ट्रीसिटी सेव करें। हमेशा सही का साथ दें। मैं यूएस में रहूं या इंडिया में.. अपनी जिम्मेदारियों को नहीं भूलती हूं। अपनी क्षमता के अनुसार बेहतर समाज और देश के निर्माण में अपना योगदान करती हूं।

टाइम पास के लिए सही नहीं

राहुल बोस

मेरी व्यक्तिगत राय है कि एक सलेब्रिटीज को अपने सोशल कंसर्न से जुडे होना चाहिए। उन्हें पता होना चाहिए कि उनके मोहल्ले, शहर और देश में क्या हो रहा है? और क्यों हो रहा है? उन्हें अपने मौलिक अधिकार और क‌र्त्तव्य की जानकारी होनी चाहिए। हालांकि वे सोशल एक्टिविटी में हिस्सा लेते हैं या नहीं, यह पूरी तह उनकी सोच पर निर्भर करता है। ऐसी गतिविधियों में हिस्सा लेते समय उन्हें एंजॉय करना चाहिए। अगर वे टाइम पास के लिए सोशल एक्टिविटी का हिस्सा बनते हैं तो यह कहीं से भी सही नहीं है। ऐसे लोगों के लिए बेहतर है कि वे सामाजिक जिम्मेदारी का नाम करने के बजाय ग्लैमर की दुनिया में ही व्यस्त रहें।

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