'कइसे खेले जइबू सावन के कजरिया, बदरिया घेरि आइल ननदी', पिया मेंहदी ले आइ द मोती झील से, जाके साइकिल से ना, 'आरे रामा सावन में लागे सोमारी, सोमारी देखे जाइब ए हरी'। सावन का महीना चल रहा है। सावन के महीने में कजरी, झूला व मेहंदी का गजब का संयोग है। इन तीनों के अभाव में सावन का महत्व ही समाप्त हो जाता है। सावन के सुहावने मौसम में झूला झूलती कजरी गाती हुयी हाथों पर मेंहदी रचाई हुयी युवतियों का झुंड नजर नहीं आता है।
Saturday, July 23, 2011
पिया सावन में कजरी सुनावे झूला झुलावे चल ना ..
जब गांवों में 'हरि हरि कृष्ण बनेले मनिहारी पहिरि लिहले साड़ी ए हरी..।पिया सावन में कजरी सुनावे झूला झुलावे चल ना..।' जैसे कर्णप्रिय कजरी सुनाई देने लगता था तो लोगों को एहसास हो जाता था कि मन भावन सावन का महीना आ गया है। इस जमाने में क्या सावन, क्या भादो न तो कहीं गांवों में महिलाएं कजरी गाते दिखती हैं न ही पेड़ की डालों पर अब झूले ही दिखाई दे रहे है। सावन के महीने में पड़ती रिमझिम फुहार और उसमें भीगती खेतों की निराई-गुड़ाई करती महिलायें जब कजरी गाती थीं, तो मन बाग-बाग हो जाता था। अब समय के साथ सब कुछ बदल सा गया है। अब इस तरह के पारम्परिक गीतों का ह्रास होने लगा है। सावन के महीने में कजरी का विशेष महत्व है। वर्षो पहले गांव की युवतियां जब हाथों में मेंहदी लगाकर झूला झूलते समय कजरी गाती थीं तब मन मयूर नाच उठता था। बुजुर्गो का कहना है कि पारम्परिक गीतों का ह्रास होना भारतीय संस्कृति के लिए शुभ संकेत नहीं है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment