Wednesday, October 19, 2011

करुणा की प्रतिमूर्ति थे बाबा पशुपतिनाथ !

स्वामी पशुपति बाबा के स्मरण से एक भव्याकृति व करुणा स्वरूप सामने आ जाता है। जिसने एक बार भी उनका दर्शन किया अपने को धन्य समझा। बाबा ज्ञान, भक्ति व साधना की त्रिवेणी थे। उन्होंने साधना के काल में बबूल व तुलसी की पत्ती खाकर और गंगा जल से तृप्त हो गंगा और नारायणी के कगारों में गर्मी-सर्दी और बरसात को मात्र एक वस्त्र के सहारे बिताकर देहाध्यास से विमुक्ति प्राप्त कर ली थी। दियारे में बबूल पतलों तथा हिंगुओं के बीच रहते थे। बाबा का आहार बथुआ, गुमबन, झूनझून का साग तथा बबूल की पत्तियां थीं। प्रमुख गुण उनकी सर्व सुलभता थी। पैसा, रुपया छूते नहीं थे। उनको इसकी आवश्यकता भी नहीं थी। जान बूझकर किसी को चमत्कार नहीं दिखाते थे, कभी-कभी ऐसी घटनाएं हो जाया करती थीं। शंकराचार्य स्वरूपानन्द सरस्वती ने उन्हे आकाश मार्ग से गमन करने वाला एकमात्र यति बताया था। स्वामी त्रिदण्डी स्वामी ने बताया था कि पशुपति नाथ की लंगोटी उनके साधना काल से ही स्वर्ग में सूख रही है। करपात्री जी महराज ने चलता-फिरता भगवान शंकर तथा साधना में अपने से बहुत आगे बताया था। बाबा भक्तों के लिए माता-पिता, भाई-बंधु सखा-मित्र सब कुछ थे। किसी दर्शनार्थी किसी भी जिज्ञासु के मन के प्रश्नों तथा शंकाओं का वे बिना बताये समाधान बता देते थे। बाबा का प्रादुर्भाव विक्रम संवत 1967 कार्तिक कृष्ण सप्तमी को बलिया जिला के शुभनथही गांव में धनराज मिश्र के पुत्र के रूप में हुआ था। वह समाज के दुर्बल भोले तथा गरीब लोगों के प्रति सहानुभूति रखते थे। बाबा ने अविलम्ब गो-हत्या बन्दी हेतु स्वामी करपात्री जी महराज के आंदोलन को सफल बनाने के लिए अहम् भूमिका निभायी। बाबा 11 जुलाई सन् 2004 को पुनाई चक पटना में ब्रह्मालीन हुए।

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