बलिया। उत्तर प्रदेश की महिला टीम ने आज 43 वीं सीनियर नेशनल खो-खो चैम्पियनशिप में बलिया की 'चैम्पियन' बालाओं के शानदार प्रदर्शन के बलबूते अपने अंतिम लीग मैच में आन्ध्र प्रदेश को पटकनी देते हुए अगले दौर में प्रवेश किया। कहना गलत न होगा कि किस्मत ने भी उनका भरपूर साथ निभाया। खो-खो जगत में महिला टीम की इस उपलब्धि को इसलिये भी विशेष महत्व दिया जा रहा कि दक्षिण भारत की किसी भी टीम पर उसकी ये पहली जीत है। अब तक हुए मुकाबलों में उत्तर प्रदेश की महिला टीम को हमेशा हार ही गले लगानी पड़ी। पिछली सीनियर नेशनल खो-खो चैम्पियनशिप की अगर बात करे तो उस दौरान महिला वर्ग में नौवें स्थान पर रहने वाली यूपी की टीम इस बार अपने ग्रुप में अव्वल रही।
दूसरी ओर पिछले मैचों में अपेक्षाकृत दब कर खेलने वाली यूपी की पुरुष टीम ने महिलाओं से नसीहत ली और अपने प्रदर्शन में अप्रत्याशित सुधार करते हुए जम्मू-कश्मीर की अपेक्षाकृत मजबूत समझी जा रही टीम को लगभग हर क्षेत्र में बौना साबित कर दिया। दूसरे सत्र में पूर्व मंत्री व विधायक अम्बिका चौधरी ने आयोजन समिति के अध्यक्ष एसबीएन तिवारी के साथ खिलाड़ियों से परिचय प्राप्त कर पुरुष वर्ग में उत्तर प्रदेश व जम्मू-कश्मीर के बीच मैच का शुभारम्भ किया। इस दौरान वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद कुमार उपाध्याय, कबड्डी संघ के अध्यक्ष इं. अरुण कुमार सिंह, आयोजन सचिव विनोद कुमार सिंह, कोआर्डिनेटर अरविन्द सिंह, क्रीड़ा अधिकारी राजेश कुमार सोनकर, सहायक प्रशिक्षक देवी प्रसाद, शिवा नंद, संजय सिंह, मनोज पाण्डेय आदि भी मौजूद रहे। इस दौरान भृगु बाबा के नाम के जयकारे भी खूब लगे।
खो-खो: सारे खेलों की जननी
बलिया: पारम्परिक खेल खो-खो सारे खेलों की जननी है। इससे पैर के अंगूठे के नाखून से लेकर सिर के बाल तक शरीर के सभी अंगों की कसरत हो जाती है। विभिन्न सर्वेक्षणों के अलावा खेल विशेषज्ञों की रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि कर चुकी है। अब तो चिकित्सक भी सलाह देने लगे है कि तन्दुरुस्त रहना है तो खो-खो खेलो।
बता दें कि इसकी शुरूआत 1960 में मुम्बई से हुई थी। इसके संस्थापक के रूप में मध्यप्रदेश के थुब्बे, हैदराबाद के ओंकार प्रसाद, कर्नाटक के बीएन शंकर नारायण एवं चन्द्र मौली, मुम्बई के अब्बा नाइक, अम्बेकर, भाई निरूलकर, दिल्ली के केडी गौतम, नागपुर के बीएल आकरे ने इस खेल को धरातल पर मूर्त रूप दिया।
आटया-पाटया व खो-खो एक दूसरे के पूरक
बलिया: महाराष्ट्र में प्रचलित आटया-पाटया खेल का प्रतिरूप है खो-खो। अंतर सिर्फ इतना ही है कि खो-खो के मैदान में जहां दोनों तरफ खम्भे लगे होते है वहीं आटया-पाटया में पोल नहीं होते। दूसरी बात खो-खो मैचों में तीन खिलाड़ी रनिंग करते है जबकि आटया-पाटया में एक खिलाड़ी रनिंग करता है। शाहू जी महाराज कोल्हापुर के जमाने में आटया-पाटया खेल का प्रचलन कुछ ज्यादा ही रहा।
Thursday, September 3, 2009
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