बलिया। तारीख गवाह है कि हर काल खण्ड में अपने उत्कृष्ट कार्यों, स्मरणीय अवदानों से जनपद ने राष्ट्रीय फलक पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। पौराणिक काल से ही इस विमुक्त क्षेत्र को अति महत्ता मिली हुई है। अति विशिष्ट याज्ञिक आयोजनों की चली आ रही परम्परा और जन समागम आज भी ददरी मेले के रूप में अपनी अलग पहचान बनाए हुए है। कार्तिक पूर्णिमा से विशेष स्नान, गंगा तट पर कल्पवास, पूर्णिमा की पूर्व संध्या पर महाआरती आदि आयोजनों के साथ ही मेले में लगने वाले पशु मेले और मीना बाजार से जहां प्रदेश से इतर व्यापारी आर्थिक उपार्जन करते हैं वहीं स्थानीय और समीपवर्ती जिलों के लोग भी अपनी जरूरत का सामान सुविधा से लाते हैं।
कार्तिक मास में संतों व महात्माओं के लिए तीन सबसे महत्वपूर्ण स्थलों का महत्व पूरे विश्व में माना गया है। इनमें कुरुक्षेत्र, हरिहर क्षेत्र के साथ ही भृगु क्षेत्र भी शामिल है। इन क्षेत्रों में कार्तिक मास में नदी तटों पर साधु संत कल्पवास करते हैं। इनमें भी भृगु क्षेत्र का अलग महत्व है। भृगु की इस तपो भूमि पर हर वर्ष कार्तिक भर गंगा व सरयू का इलाका गुलजार रहता है। कार्तिक पूर्णिमा के बाद यह क्षेत्र पूरी तरह से रमणीय हो जाता है। महर्षि भृगु के प्रिय शिष्य दर्दर मुनि के नाम से लगने वाला यह ऐतिहासिक मेला भी एक माह तक चलता है। नगर के दक्षिणी छोर पर लगने वाला यह मेला दो भाग में चलता है। शुरूआत में पशुओं के लिए नंदी ग्राम की स्थापना की जाती है। कार्तिक पूर्णिमा स्नान के दिन से ही मीना बाजार की स्थापना हो जाती है जिसमें दूर-दराज के व्यापारी आते हैं।
जनश्रुतियों के अनुसार यह मेला ऋषि-मुनियोंकी तपोस्थली के रूप में जाना जाता था। महर्षि भृगु ने यहीं गंगा तट पर तपस्या की थी। लोक हितकारी कार्य के निर्विघन् पूर्ण होने से हर्षित भृगुजी ने इस विमुक्त क्षेत्र स्थित अपने आश्रम पर एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया जिसमें भारतवर्ष के ऋषि-मुनि, देव-दैत्य-दानव-यक्ष- गन्धर्व- रंक-भूपति तीर्थों को आमंत्रित किया गया। पूरे एक माह तक चले इस विराट महायज्ञ में भारी जन समागम हुआ। इस महायज्ञ की पूर्णाहुति कार्तिक पूर्णिमा की उस तिथि पर हुई जब सूर्य तुला राशि में रहा। इससे यह भू-भाग ऊर्जा से भर गया। महर्षि भृगु की इस परम्परा को उनके परम शिष्य महामुनि दर्दर व उनके बाद के ऋषि मुनियों ने जारी रखा। वह परम्परा आज भी कायम है। त्रेता व द्वापर युग में यह भू-भाग सूर्य मण्डल के उत्तर कोशल राजवंश के अवध-काशी एवं मगध-वैशाली राज्यों का सीमांत क्षेत्र था। ददरी मेले में इन चारों राज्यों के राजा व प्रजा जन आते थे। यज्ञ प्रवचन से लेकर सम्पूर्ण व्यवस्था ऋषि मुनियों के सानिध्य में गुरुकुल के बटुक, परिजन सम्भालते थे। सन् 1773 ई. से 1764 ई. तक इस क्षेत्र को काशीराज बलवंत सिंह का संरक्षण मिला। सन् 1739 में 29 दिसम्बर को भृगु क्षेत्र ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन हुआ। एक नवम्बर 1879 ई को जब बलिया जिला बना तो इस मेले की सारी व्यवस्था जिलाधीश की देख रेख में होने लगी। अब नगर पालिका परिषद इसकी सारी व्यवस्था करता है। ददरी मेला भारत के प्रसिद्ध पशुमेला स्नान पर्व से दस दिन पहले लगता है। इसमें उन्नत नस्ल की गाय, भैंस, बैल, बछडे़, घोड़े, गदहे, खच्चर आदि क्रय-विक्रय के लिए आते हैं। कार्तिक पूर्णिमा स्नान कर लाखों श्रद्धालु महर्षि भृगु, दर्दर, बाल्मीकि, बाबा बालेश्वर नाथ का दर्शन-पूजन करते हैं। इसी दिन से मीना बाजार का मेला शुरू हो जाता है। इसमें विभिन्न तरह के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक कार्यक्रमों का भी आयोजन होता है। साथ ही सर्कस, नौटंकी, झूला, चर्खी व खेल तमाशे भी इस मेले की रौनक बढ़ा देते है।
विद्यासागर तिवारी, सुधीर तिवारी
ददरी मेले में कार्यक्रम
दंगल 7 नवम्बर को, खेलकूद 7 से 11 नवम्बर तक, कव्वाली एवं सम्मान समारोह 11 को, लोकगीत 14 को, मुशायरा 17 को, ददरी महोत्सव 22 को तथा समापन 22 नवम्बर को होगा।
Saturday, November 7, 2009
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